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ग़ज़ल
कार-गाह-ए-हस्ती में लाला दाग़-सामाँ है
बर्क़-ए-ख़िर्मन-ए-राहत ख़ून-ए-गर्म-ए-दहक़ाँ है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
बिकते हैं शहर में गुल-ए-बे-ख़ार हर तरफ़
है बाग़बाँ की गर्मी-ए-बाज़ार हर तरफ़
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
मैं ख़ुद ही ख़्वाब-ए-इश्क़ की ताबीर हो गया
गोया हर इक बशर तिरी तस्वीर हो गया
जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर
ग़ज़ल
महरूमियों का इक सबब जोश-ए-तलब ख़ुद भी तो है
शो'ले पे लपका इस तरह जैसे कोई गुल ही तो है
मुहिब आरफ़ी
ग़ज़ल
है क्यूँ नक़्ल-ए-मकानी ये हवा-ए-ताज़ा-तर क्या है
समझ में कुछ नहीं आता इधर क्या है उधर क्या है
सय्यद अमीन अशरफ़
ग़ज़ल
रता है अबरुवाँ पर हाथ अक्सर लावबाली का
हुनर सीखा है उस शमशीर-ज़न ने बेद-ए-माली का